” संजीवनी”
दरख़्त जमी से कट गए,
रह गए न पीपल की छांव।
जो गांव थे कभी हरे भरे,
वहां बरसता अब सिर्फ आंव।
उद्योगों की चाहत में,
हमने भारी कीमत चुकाई है।
सिर्फ हर जगह है धुंध ही धुंध,
किस तरह आजकल बढ़ रही बीमारी है।
कहीं बाढ़,तो कहीं ओले ,
आजकल बरसते हैं।
कितना मौसम बदल गया
कि हर जगह मेघ फटते हैं।
इंसानों की सांसों में,
हर वक्त रहती संजीवनी है।
दरख़्त तो चले गए उद्योगों में,
आजकल इसकी भारी कमी है।
चलिए हम सब मिलकर,
एक सामूहिक मुहिम चलाए।
जो दरख़्त हट गए हमसे,
फिर उनको एक बार लगाए
राजेन्द्र यादव