बनारस के कोइरीपुर मुसहर बस्ती के जिन बच्चों ने बचपन से सिर्फ गरीबी, भुखमरी और घर में आर्थिक तंगी के चलते कलह होते देखा था। जिन बच्चों का खिलौना ईंट-पत्थर हुआ करता था… जिनके चहरों पर सिर्फ उदासी हुआ करती थी…आज उस पर मुस्कान थी। सबके चेहरे खुशियों से दमक रहे थे। जानते हैं क्यों? इन बच्चों के लिए हम खिलौने लेकर पहुंचे थे और खेलने का ढेरों सामान भी। ये वही बच्चे थे जो लाकडाउन के दौरान भूख से बिलबिला रहे थे। अंतड़ियां ऐंठने लगीं तो वो अंकरी घास खाने के लिए विवश हो गए थे। हमारी रिपोर्ट छपने के बाद यह गांव देश-दुनिया में सुर्खियों में आया था।
लाकडाउन के दौरान हमने कोइरीपुर मुसहर बस्ती के नंग-धड़ंग बच्चों की बेबसी और जिजीविषा की जंग लड़ते देखा था। न जाने कितने तीज-त्योहार बीत गए। अब दिवाली नजदीक है। सोचा कि क्यों न इनकी जिंदगी में कुछ उल्लास और खुशियों का रंग भरा जाए। रविवार को पूर्वाह्न करीब 11 बजे हम अचानक कोइरीपुर मुसहर बस्ती में पहुंच गए। हमारे पास महिलाओं और पुरुषों के लिए साल, कंबल, कपड़े, टार्च थे और बच्चों के लिए ढेरों खिलौने व नए-नए परिधान।
मुसहर बस्ती के ज्यादातर पुरुष धान काटने गए थे और कुछ भट्ठों पर ईंटों की पथाई करने। अधिकांश महिलाएं घर पर मौजूद थीं। इनके बच्चे एक ढूहे पर बैठकर ईंट-पत्थरों से खेल रहे थे। कुछ के बदन पर फटे-मैले-कुचैले कपड़े थे और कुछ नंग-धड़ंग। सबके बाल उलझे हुए थे। शायद परिवार वालों ने महीनों से उन्हें नहलाने की जरूरत न समझी हो या फिर गरीबी के चलते साबुन-तेल न मिल पाने की विवशता रही हो।
कोइरीपुर मुसहर बस्ती के लोगों ने हमें अपना ठौर-ठिकाना दिखाया तो हम अवाक रह गए। ओढ़ने के लिए न कायदे के कपड़े थे और सोने के लिए चारपाई। महिलाओं ने बताया कि इन्हीं झोपड़ियों में इनके बच्चे भी पलते हैं और मुर्गे-बकरियां भी। झोपड़ियां भी ऐसी कि तेज हवाओं के झोंके शायद ही झेल पाएं। इन झोपड़ियों में टाट और बोरे ही इनके बिछावन थे। झोपड़ियों पर करकट का छाजन नहीं, जगह-जगह फटे पालिथीन बांधे गए थे, ताकि बारिश में उनकी गृहस्थी उजड़ने से बच सके।
कोइरीपुर मुसहर बस्ती के लोगों ने बताया कि उनके समुदाय में कोई पढ़ा-लिखा नहीं है। कोई बच्चा स्कूल भी नहीं जाता। बच्चों ने बताया कि सरकारी प्राइमरी स्कूल के टीचर उन्हें भगा देते हैं। दोपहरिया भोजन भी नहीं देते। मैले-कुचैले कपड़ों के चलते उन्हें दूसरे बच्चों के साथ बैठने नहीं दिया जाता। शायद गरीबी के चलते ही स्कूल चलो अभियान यहां फ्लाप है। इसकी चिंता न सरकार को है, नौकरशाही को।
हमें खुशी है कि मुसहर बस्ती में हर किसी को देने के लिए हमारे पास कुछ न कुछ जरूर था। पुरुष और महिलाओं से ज्यादा खुश थे बच्चे। वो बच्चे जिन्होंने अपने हाथ में कभी कोई खिलौना नहीं पकड़ा था। आज सबकी हसरत पूरी हो गई। हर नन्हे हाथ में खिलौना था। बच्चों के चेहरों की रौनक बता रही थी कि आज जितनी खुशी इन्हें कभी नहीं मिली थी। हम मास्क और सैनिटाजर लगाकर पहुंचे थे। बच्चों के आग्रह पर मास्क हमें उतराना पड़ा। उनके साथ हमने क्रिकेट खेला और वालीबाल भी। यह पहला मौका था जब इस बस्ती के बच्चों ने अपने हाथ में गेंद और क्रिकेट का बल्ला पकड़ा और वालीबाल उछालने का अवसर भी पाया।
कोरोनाकाल में हमने मुसहर समुदाय के इन्हीं बच्चों को घास खाते हुए देखा था। जिद थी कि इनके चेहरों पर रौनक लाई जाए। खुशियां लाई जाएं और नन्ही सी मुस्कान भी। हमारी मुहिम के सहयात्री थे, समाजसेवी आचार्य विशाल जी, सकल नारायण जी, जाने-माने फोटोग्राफर क्रेजी ब्याय और ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के अध्यक्ष सीवी तिवारी जी। हम-सबने मुसहर समुदाय के बच्चों को कपड़े-खिलौने बांटे। खिलौने पाकर बच्चे गद्गद थे। इनके चेहरों पर आई मुस्कान को देखा तो प्रेरणा मिली कि इस अभियान को आगे भी जारी रखा जाए।
गरीबों में सबसे गरीब मुसहर समुदाय के बच्चों के चेहरों पर रौनक और मुस्कान लाने के लिए जिन लोगों ने हमारा हौसला बढ़ाया उनमें थे रोटरी क्लब वाराणसी डाउन टाउन के अध्यक्ष संदीप गुप्ता जी, चिरईगांव के प्रधान धनंजय सिंह मौर्य , समाजसेवी संजीवन मौर्य व आशु मौर्य। मासूम चेहरों पर खुशियां लाने के लिए हमें प्रेरित किया शहर के जाने-माने समाजसेवी संजय केशरी जी ने। हमारे साथ इनकी भी कोरोनासुर से सीधी जंग हुई थी। बाद में हम दोनों ने धूर्त कोरोना वायरस पर विजय पाई थी। नवजीवन मिलने के बाद निर्णय लिया है कि हम आगे भी कुछ ऐसा काम करेंगे जिससे मासूमियत ईंट-पत्थरों से नहीं, खिलौनों से खेल सके और उदास-मायूस चेहरों पर मुस्कान आ सके।
रिर्पोट विजय विनीत