राजकुमारी की तरह इठलाती हुई दावत में पहुंची. वहां खस्ता कचौरियों, भुने गोश्त, लजीज सालन और शीर-खुरमे की गमक फैली थी.
पिछले साल की बात है. जिस कारखाने में काम करती हूं, वहां के ठेकेदार ने हम बच्चों को दावत पर बुलाया. उसकी बेटी की सालगिरह थी. सब कोई न कोई तोहफा दे जा रहे थे- पेंसिल का डिब्बा, चुंबक वाली तस्वीर, रंगीन चूड़ियां, कान के बूंदे, कम दामोंवाला भड़कीला दुपट्टा… मैं क्या दूं? मां ने कहा- अभी ऐसे ही चली जा. जब पगार आएगी, कुछ खरीद लाएंगे.
मैंने अपने सबसे शानदार कपड़े पहन रखे थे. कई साल पहले ईद पर ली गई सलवार-कमीज. धुलकर वो बदरंग हो चुकी थी लेकिन पैबंद लगे कपड़ों से बेहतर ही थी. राजकुमारी की तरह इठलाती हुई दावत में पहुंची. वहां तलती कचौरियों, भुने गोश्त, लजीज सालन और शीर-खुरमे की गमक फैली थी.
जितनी भी देर इंतजार किया, मैं सिर्फ और सिर्फ खाने की बात सोचती रही. प्लास्टिक की प्लेटों में भर-भरकर खाना लिया. पेट भरने के बाद थोड़ा बांधकर घर लौटी. रात अम्मी की भी दावत हुई. अगली सुबह बची पूरियां और सालन खाकर भट्टी पहुंची.
उस दोपहर हमने पिछली रात की दावत की बात की. उसके बाद की दोपहर भी रात की सालन के साथ चिम्मड़ हो चुकी रोटियां खाते हुए हमने उसी खाने के चटखारे लिए.
जिस बच्ची का जन्मदिन था, उसके बारे में खूब बातें हुईं. सबने अपनी समझ से खूब किस्से सुने-उड़ाए. कि वो रोज मक्खन के साथ रोटियां और घी में तर गोश्त खाती है. कि थाली का खाना खत्म हो जाए, इसके लिए उसकी अम्मी बार-बार झिड़कती है. कि वो रोज स्कूल जाती है और स्कूल से लौटकर फिर पढ़ती है.
मैं कभी स्कूल नहीं गई. एक ही बार स्कूल जाना हुआ था, जब अपने पड़ोसी के छोटे बेटे को स्कूल छोड़ना था. बदले में मुझे नाश्ता मिला था.
दो सालों से कारखाने में अम्मी की मदद कर रही हूं. मैं हाथों और फावड़े से कोयले की ढेरियां बनाती हूं और अम्मी उन्हें ले जाती है. ढेरियां बनाते हुए अम्मी की तरफ देखती हूं कि वो कैसे फिरकनी की तरह यहां से वहां दौड़ती रहती है.
कारखाने में काम करने के कारण गोरी-चिट्टी मेरी अम्मी का रंग कोयले में घुलमिल गया है. मक्खन के मानिंद मुलायम हाथों पर धूल, कोयले और लाचारगी की सख्ती है.
पिछले हफ्ते अम्मी सिर पर भारी बोझ संभाले चली जा रही थी तभी पैर फिसला और सारी की सारी ईंटें भरभराकर उसके पैर पर गिर पड़ीं.
तब से अम्मी बिस्तर पर ही हैं. हम उसे अस्पताल भी नहीं ले जा सके. ठेकेदार वैसे तो नेक आदमी है लेकिन घायल मजदूरों का इलाज कराने से साफ मना कर देता है. हमारी गुजारिश पर उसने इतनी रियायत दे दी कि अम्मी की गैरमौजूदगी में मुझे हल्के काम मिलेंगे और तनख्वाह अम्मी की. तब से कारखाने के सारे बच्चे मुझसे नाराज दिखने लगे हैं. दोपहर में खाने की छुट्टी में कोई साथ नहीं बैठता. मैं अकेली खाती हूं और फिर काम में लग जाती हूं.
लगातार काम करते हुए खुद मैं भी कोयला हो गई हूं. कोयले की किरचें हाथ-पैरों में चुभती हैं.
आंखों में जलन रहती है. हाथ-पैर-कंधे सब दर्द करते हैं. दर्द और थकान से रात को नींद नहीं आती. सुबह नींद लगती ही है कि फैक्टरी का सायरन बज जाता है. अम्मी बेमन से ही हौले-हौले मुझे हिलाती है और मुंह धुलवाकर रात की एक रोटी खाने दे देती है. दो साल पहले दिन की शुरुआत अलग होती थी. रात में चाहे जल्दी सो जाऊं, सुबह देर तक सोती रहती. अम्मी आवाज दे-देकर हलाकान हो जाती. अब्बू सिर पर हाथ फेरकर फैक्टरी जा चुके होते.
जब हांडी पकने की खुशबू आती, तब जाकर जागती. कुछ खाकर मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलती और भूख लगने पर ही घर की ओर पलटती.
कारोबार में घाटे के बाद सब बदल गया. अब्बू मजदूरी करते हैं. अम्मी और मैं कारखाने जाते हैं.
मुझे चटनियां खूब पसंद थीं- आम की, करौंदे की, अमोटा की. अम्मी हर मौसम के खट्टे-तुर्शीले फल-सब्जियों की चटनी बनाती और थाली में धर देती.
पेट भरा हो या अम्मी से गुस्सा रहूं- चटनी देखते ही मैं मान जाती. बीते इतवार अम्मी ने करौंदे की चटनी बनाई. पहला निवाला मुंह में डालते ही पानी पीना पड़ा. मुंह में रेत और कोयले का स्वाद था. दांत साफ करके लौटी. दोबारा खाने बैठी. दोबारा वही किरकिराहट. कोयला और धूल मुंह और आंखों से होते हुए भीतर तक पहुंच गई है. जो भी खाऊंगी, निवाला कोयले का हो जाएगा.
शपला नाम है मेरा. हमारे मुल्क का सबसे खूबसूरत फूल. चांद सा सफेद. खरगोश सा मखमली. मुझपर कोयले की इतनी गहरी परत चढ़ चुकी है कि अब अपना नाम बताते झेंप लगती है.
(शपला की तस्वीर और कहानी फेसबुक पेज GMB Akash की इजाजत से ली गई है. कहानी में थोड़े बदलाव किए गए हैं.)