वित्तीय हकीकत यह है कि ज्यादा सरकारी पैसा राज्यों के हाथों में होता है, केंद्र के नहीं. इसलिए 15-20 विधायकों को खरीदकर विधानसभा में अपना पलड़ा भारी करने के लिए 400 करोड़ तक खर्च करना बड़ी लड़ाई के लिए खजाना बनाने के लिहाज से कोई बड़ी कीमत नहीं है.
SANKALP SAVERA
जब किसी राज्य के मतदाताओं ने आपको अपना जनादेश नहीं दिया है, फिर भी ऐसा क्या है कि उस राज्य की सत्ता हड़पना आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है?
इस सवाल का एक जवाब तो यह हो सकता है कि इससे राज्य प्रशासन पर आपकी पकड़ बन जाती है, जिसका इस्तेमाल आप चुनाव के समय अपने फायदे के लिए कर सकते हैं. शासक दल की सुविधा के लिए पुलिस तथा दूसरे महकमे के अधिकारियों का तबादला किया जा सकता है ताकि जब जोड़तोड़ (मसलन अपने चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं को घूस देना) जारी हो तब वे नज़रें फेर लें, या चुनाव में मदद करने वाले स्थानीय प्रभावशाली तत्वों या बाहुबलियों की मदद के लिए उनकी तैनाती की जा सके.
एक अस्पष्ट-सी संभावना यह है कि सियासी मकसद के लिए सरकारी व्यवस्था से ज्यादा पैसा केंद्र से ज्यादा राज्यों से ही दूहा जा सकता है. दोहरा फायदा यह है कि इस पैसे से विपक्ष को वंचित रखा जा सकता है. विपक्ष वैसे भी घाटे में होता है क्योंकि उसकी पहुंच उन कोशों तक नहीं होती, जो केंद्र पर नियंत्रण की मदद से बनाए जा सकते हैं. व्यवसायी लोग आम तौर पर इसलिए पैसे देने को तैयार होते हैं कि नहीं दिया तो केंद्रीय एजेंसियों, टैक्स वालों, बैंक वालों (बदनाम ‘फोन बैंकिंग’) और सेक्टर रेगुलेटरों की मदद से उनका जीना हराम किया जा सकता है.
इस तरह के कोश बड़े और अहम तो होते हैं मगर वित्तीय हकीकत यह है कि ज्यादा सरकारी पैसा राज्यों के हाथों में होता है, केंद्र के नहीं. पिछले साल केंद्र ने कुल 27 लाख करोड़ रुपये खर्च किए, जिसका हिसाब पहले से ही लगा हुआ था— 1 करोड़ सरकारी कर्मचारियों के वेतन और पेंशन पर, सरकारी कर्ज़ (जो तेजी से बढ़ रहा है) के ब्याज भुगतान पर, राज्यों को आवंटन (पहले से ज्यादा उदारता से), जो करीब तीन तिमाहियों के कुल योग में लगभग बराबर अनुपात में बंटे.
इसलिए केंद्र ने अपने विवेक से 7 लाख करोड़ से ज्यादा नहीं खर्च किया. इसके बरक्स राज्यों ने कुल 34 लाख करोड़ खर्च किए, जिनमें पहले से निश्चित खर्चों का अनुपात केंद्र के इस अनुपात से काफी कम था. मसलन, ब्याज भुगतान केंद्रीय बिल के 60 प्रतिशत से कम था.
इसलिए, सरकारी भुगतानों में से कमीशनखोरी करनी है, तो राज्यों में इसके लिए कहीं बड़े मौके हैं. सिंचाई और सड़क निर्माण के ठेके को लीजिए, या शराब के उत्पाद शुल्क और खनन के पट्टों (कर्नाटक के बेल्लारी बंधुओं को याद कीजिए), तमाम तरह की खरीद को ही ले लीजिए (राज्य ‘डिस्कोम’ द्वारा बिजली की खरीद, बिजली संयन्त्रों के लिए कोयले की खरीद, पशु विभाग में चारे की खरीद, तेंदू पत्ते के ठेके…. सूची लंबी है). बड़ी बात यह है कि अगर आप लालू यादव जैसे बदकिस्मत न हुए, तो राज्य स्तरीय सौदों पर खोजी नज़र कम ही रखी जाती है.
इसलिए, बियावान में फंसी कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए एक-दो राज्यों को अपने कब्जे में रखना काफी महत्व रखता है. इसके मुख्यमंत्री ताकतवर होते थे, इसकी एक वजह यह थी कि वे केंद्रीय पार्टी के लिए कोश जुटाते थे. याद कीजिए कि वाइ.एस. राजशेखर रेड्डी (जिनके पुत्र रातोरात अमीर हो गए) या भूपिंदर सिंह हुड्डा (ज़मीन के इस्तेमाल की शर्ते बदलने की छूट देने वाले) कितने ताकतवर मुख्यमंत्री रहे.
कांग्रेस को किसी राज्य की सत्ता से बेदखल करना एक बड़े दांव वाला खेल है, जिसके राष्ट्रीय नतीजे भी होते हैं क्योंकि यह प्रभावी चुनाव अभियान के लिए जरूरी ईंधन से वंचित करता है. दलबदल को तैयार विधायक की कीमत अगर 15 से 25 करोड़ रुपये के बीच हो तो वह काफी ऊंची लग सकती है मगर इस तरह 15-20 विधायकों को खरीदकर विधानसभा में अपना पलड़ा भारी करने के लिए 400 करोड़ तक खर्च करना बड़ी लड़ाई के लिए खजाना बनाने के लिहाज से कोई बड़ी कीमत नहीं है.
आखिर, यह प्रतिद्वंद्वी पार्टी को राज्य के सरकारी खजाने से वंचित करता है (इतिहास से मिसाल लें, तो यह बंगाल की दीवानी हासिल करने के लिए मीर जाफ़र को घूस देने जैसी कोशिश मानी जा सकती है).
इस तरह के कोश बड़े और अहम तो होते हैं मगर वित्तीय हकीकत यह है कि ज्यादा सरकारी पैसा राज्यों के हाथों में होता है, केंद्र के नहीं. पिछले साल केंद्र ने कुल 27 लाख करोड़ रुपये खर्च किए, जिसका हिसाब पहले से ही लगा हुआ था— 1 करोड़ सरकारी कर्मचारियों के वेतन और पेंशन पर, सरकारी कर्ज़ (जो तेजी से बढ़ रहा है) के ब्याज भुगतान पर, राज्यों को आवंटन (पहले से ज्यादा उदारता से), जो करीब तीन तिमाहियों के कुल योग में लगभग बराबर अनुपात में बंटे.
इसलिए केंद्र ने अपने विवेक से 7 लाख करोड़ से ज्यादा नहीं खर्च किया. इसके बरक्स राज्यों ने कुल 34 लाख करोड़ खर्च किए, जिनमें पहले से निश्चित खर्चों का अनुपात केंद्र के इस अनुपात से काफी कम था. मसलन, ब्याज भुगतान केंद्रीय बिल के 60 प्रतिशत से कम था.
इसलिए, सरकारी भुगतानों में से कमीशनखोरी करनी है, तो राज्यों में इसके लिए कहीं बड़े मौके हैं. सिंचाई और सड़क निर्माण के ठेके को लीजिए, या शराब के उत्पाद शुल्क और खनन के पट्टों (कर्नाटक के बेल्लारी बंधुओं को याद कीजिए), तमाम तरह की खरीद को ही ले लीजिए (राज्य ‘डिस्कोम’ द्वारा बिजली की खरीद, बिजली संयन्त्रों के लिए कोयले की खरीद, पशु विभाग में चारे की खरीद, तेंदू पत्ते के ठेके…. सूची लंबी है). बड़ी बात यह है कि अगर आप लालू यादव जैसे बदकिस्मत न हुए, तो राज्य स्तरीय सौदों पर खोजी नज़र कम ही रखी जाती है.
इसलिए, बियावान में फंसी कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए एक-दो राज्यों को अपने कब्जे में रखना काफी महत्व रखता है. इसके मुख्यमंत्री ताकतवर होते थे, इसकी एक वजह यह थी कि वे केंद्रीय पार्टी के लिए कोश जुटाते थे. याद कीजिए कि वाइ.एस. राजशेखर रेड्डी (जिनके पुत्र रातोरात अमीर हो गए) या भूपिंदर सिंह हुड्डा (ज़मीन के इस्तेमाल की शर्ते बदलने की छूट देने वाले) कितने ताकतवर मुख्यमंत्री रहे.
कांग्रेस को किसी राज्य की सत्ता से बेदखल करना एक बड़े दांव वाला खेल है, जिसके राष्ट्रीय नतीजे भी होते हैं क्योंकि यह प्रभावी चुनाव अभियान के लिए जरूरी ईंधन से वंचित करता है. दलबदल को तैयार विधायक की कीमत अगर 15 से 25 करोड़ रुपये के बीच हो तो वह काफी ऊंची लग सकती है मगर इस तरह 15-20 विधायकों को खरीदकर विधानसभा में अपना पलड़ा भारी करने के लिए 400 करोड़ तक खर्च करना बड़ी लड़ाई के लिए खजाना बनाने के लिहाज से कोई बड़ी कीमत नहीं है.
आखिर, यह प्रतिद्वंद्वी पार्टी को राज्य के सरकारी खजाने से वंचित करता है (इतिहास से मिसाल लें, तो यह बंगाल की दीवानी हासिल करने के लिए मीर जाफ़र को घूस देने जैसी कोशिश मानी जा सकती है). News by theprinthindi 18 july20