।।संकल्प सवेरा।।
क्यों जलाने लगे हैं ,पुराने आशियाने।
मुझे याद भी नहीं,वो गुजरे जमाने।
जब अश्रु से बह गया था समन्दर,
जब लगे थे हम,छोटा सा घर बनाने।
कम से कम,दो चार आप भी बनाते।
जो टूट गए हैं ईंट,उनको फिर से सजाते।
हमने जहां तक,पहुंचाई थी दीवार,
कम से कम उसे,मंजिल तक तो लेे जाते।
जो हमने बनाया था ठौर,वो तुमने जला दिया।
जो घर था गैर का,उसको तुमने बचा लिया।
यहीं तो है हमारी जिंदगी का फलसफा,
जो गैर का घर बचाकर,अपना ही घर फूंक दिया।
“राजेन्द्र यादव” राज












