डॉ रामजी तिवारी की कलम से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के स्थापना दिवस पर
संकल्प सवेरा। 1992 में पहली बार कदम रखा था इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में लाइन में लगकर एडमिशन लिया था।संस्कृत,अंग्रेजी और मध्यकालीन इतिहास विषय मिला था जबकि दर्शनशास्त्र की इच्छा रखता था।दर्शनशास्त्र के कक्षाओं में जाता और भारतीय दर्शन के साथ पाश्चात्य दर्शन में भी आनन्द आने लगा।
जटाशंकर सर और उपाध्याय सर की कक्षाएँ बहुत ही रोचक थीं।कांट बहुत अच्छे लगते थे किंतु विषय परिवर्तन की मेरी अपील ठुकरा दी गई और फिर अंग्रेजी की कक्षाओं में बिना मन के जाना शुरू किया।दास सर हेड थे तब।मैन चपरासी से पूछा कि मधुसूदन सर कहाँ हैं तब उसने कहा “प्लीज डोन्ट यूज हिंदी वर्ड्स इन दिस डिपार्टमेंट।
सर इज एब्सेंट टूडे।”चपरासी के सिखाने पर हम मित्रों को बुरा लगा।तीन मित्र थे उस समय। मैंने बिहारी स्टाइल में कहा सरऊ हम हिंदी बोलत बानी और तू अंग्रेजी झाड़त हउव।हमारी आवाज आदरणीय दास कर के कानों में पहुँची।ग़जब का आकर्षक व्यक्तित्व ! बिना प्रेस किया हुआ कपड़ा भी उनकी विद्वत्ता और शोभा में चार चाँद लगा रहा था।उन्होंने अपने ऑफिस में बुलाया।दूसरे चपरासी से पानी पिलवाया और कहा कि सीखना तो अच्छी बात है वह किसी से सीखा जा सकता है।
यदि फोर्थ क्लास एम्प्लाई कुछ सीखा रहा है तो हर्ज क्या ? वह विद्वान नहीं पर उसने विभाग में रहते रहते अंग्रेजी बोलना और पढ़ना सीख लिया है।सिखानेवाला तो गुरु होता है और गुरु से ऐसा व्यवहार ? हमने सर से क्षमा माँगी तो उन्होंने कहा क्षमा उस चपरासी से माँगिये तो मुझे खुशी होगी।हमने हाथ जोड़कर उनसे माफ़ी माँगी और कहा भैया दुबारा गुस्ताखी न होगी।किशोरावस्था में उदण्डता को ही बहादुरी मानने का चलन उस समय भी था।हाँ, तो अंग्रेजी पढ़ ही रहा था तभी गाँव चला गया और बीमार हो गया।परीक्षा के पूर्व लौटा तो पता चला मेरा विषय परिवर्तित हो गया है क्योंकि कर्मचारी यूनियन के उपाध्यक्ष एसएन सिंह भैया जो बगल में ही रहते थे उनसे निवेदन किया था विषय बदलवाने के लिए।जैसे ही घर से आया उन्होंने कहा कहाँ गायब हो गए थे (उन दिनों फोन नहीं हुआ करता था) परसो से तुम्हारी परीक्षा है।परसों पोलिटिकल साइंस का पेपर है।बहुत मेहनत के बाद चेंज हुआ।मुझे मानो काठ मार गया हो।पॉलिटिकल साइंस ?
भैया,मैन तो फिलासफी ….
एसएन सिंह भैया – बड़े लापरवाह हो।अरे तुमने ही तो पोलिटिकल साइंस कराने को कहा था सो करा दिया।अब तो भलाई का जमाना नहीं रहा।वगैरह वगैरह …
मुझे इतनी हिम्मत न हुई कि पूछ सकूँ कि पोलिटिकल साइंस आखिर किसकी बलि देकर मिला!
विश्वविद्यालय जाकर प्रवेश पत्र लिया जिसमें अंग्रेजी गायब था और उस स्थान पर पोलिटिकल साइंस विषय था।पापा को फोन मिलाया कि अब क्या करूँ ? पापा बड़े ही उत्साही व्यक्ति थे उन्होंने कहा- राम के लिए असंभव कुछ नहीं।दो दिन बहुत हैं।मैंने कहा पाँच देश का संविधान पढ़ना होगा सोचता हूँ ड्राप कर दूँ इस साल पर पापा ने कहा परीक्षाओं से भागते नहीं।जाओ दो दिन में सब कुछ पढ़ सकते हो।पुस्तक खरीदा और न जाने कैसी अद्भुत शक्ति आई कि दो दिन में ही सबकुछ अंगीकृत हो गया।एक मित्र से मदद माँगने उसके हॉस्टल भी पहुँचा पर परीक्षा के समय नोट्स फोटो कॉपी कराने में उसका समय नष्ट होता और उसकी उपेक्षित वाणी ने और उत्साहित किया और मित्र से कहा तुमसे कम नम्बर तो नहीं आएगा।परीक्षा के बाद उस मित्र से एक नम्बर अधिक रहा पॉलिटिकल साइंस में।
मेरे गुरुकुल ने जीना सिखाया।समाज में सर उठाकर चलना सिखाया।स्थापना दिवस पर कृतज्ञता प्रकट करता हूँ और साष्टांग दण्डवत करता हूँ।।
– रामजी तिवारी