भस्म का क्या महत्व है? इसके क्या आध्यात्मिक लाभ हैं? राजेश्वर श्रीवत्स, ग्वालियर, मध्य प्रदेश
भस्म दो शब्दों ‘भ’ और ‘स्म’ के योग से बना है। ‘भ’ अर्थात ‘भर्त्सनम्’ अर्थात ‘नाश हो’ और ‘स्म’ अर्थात स्मरण। इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में भस्म के कारण पापों का दलन होकर ईश्वर का स्मरण होता है। विभूति, रक्षा एवं राख ये भस्म के समानार्थी शब्द हैं। विभूति, भस्म या पवित्र राख के प्रयोग के कई पहलू हैं। इसमें ‘ऊर्जा-शरीर’ को निर्देशित और नियंत्रित करने की क्षमता है। उसे लगाने का एक सांकेतिक महत्व भी है। वह लगातार हमें जीवन की नश्वरता की याद दिलाता रहता है।
भस्म औघड़दानी शिव का सबसे प्रिय पदार्थ है। इसे शिवजी के वस्त्र और आभूषण जैसा ही समझना चाहिए। भस्म का महत्व इसी से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मा, विष्णु और अन्य सभी देवता, उपदेवता, योगी, सिद्ध, नाग आदि इसे धारण करते हैं। शिव पुराण के अनुसार भस्म धारण करने मात्र से ही सभी प्रकार के पापों का नाश हो जाता है। भस्म को शिवजी का ही स्वरूप समझना चाहिए। जो मनुष्य पवित्रतापूर्वक भस्म धारण करता है और शिवजी का गुणगान करता है, उसे दोनों लोकों में आनंद मिलता है। शिव पुराण में नारद को भस्म की महिमा बताते हुए ब्रह्मा कहते हैं- यह सभी प्रकार के शुभ फल देने वाली है। जो मनुष्य इसे अपने शरीर पर लगाता है, उसके सभी दुख व शोक नष्ट हो जाते हैं। भस्म शारीरिक और आत्मिक बल को बढ़ा कर मृत्यु के समय भी अत्यंत आनंद प्रदान करती है।
भस्म मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है- महाभस्म और न्यूनतमवाद। महाभस्म को शिवजी का मुख्य स्वरूप माना जाता है और स्वल्पभस्म की कई शाखाएं हैं, जिनमें श्रोत, स्मार्त और लौकिक अधिक प्रसिद्ध हैं। जो भस्म वेद की रीति से धारण की जाती है, उसे श्रौत कहते हैं। जो स्मृति या पुराणों की रीति से धारण की जाती है, वह स्मार्त है। जो भस्म सांसारिक अग्नि से उत्पन्न होती है और धारण की जाती है, उसे लौकिक कहा जाता है।