जाति जनगणना : कारण और संभावित प्रभाव मांग क्यों?:डॉ प्रशांत त्रिवेदी
संकल्प सवेरा। जाति जनगणना की मांग विपक्ष की ओर से पिछले 2–4 वर्षों से की जा रही थी। (पहले इसकी मांग ज्यादा नहीं की जा रही थी, हां, कुछ क्षेत्रीय दल जरूर इसकी बात कभी कभी करते थे, इसीलिए 2011 की जनगणना के साथ आर्थिक और सामाजिक सर्वे भी हुआ था, हालांकि उसे प्रकाशिक नहीं किया गया।) विपक्ष द्वारा इसकी मांग इसलिए की जा रही थी क्योंकि उनका मानना था कि भाजपा की मजबूती हिंदू के एकीकरण में है, इसलिए अगर जाति जनगणना की मांग करके इस एकीकरण को तोड़ दिया जाय तो भाजपा को गिराया जा सकता है। (ध्यान रहे जाति की राजनीति पहले से ही थी, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जाति राजनीति का ओरियंटेशन यही रहा है) जाति जनगणना की बात करके विपक्ष जाति आधारित न्याय की मांग उठाना चाह रहा था, इसके पीछे निहितार्थ यह प्रदर्शित करना था कि भाजपा तथाथित उच्च जातियों की पार्टी है और उसके शासन काल में तथाकथित उच्च जातियों का ही विकास हो रहा है और तथाकथित माध्यम और निम्न जातियां विकास प्रक्रिया से बराबरी की भागीदार नहीं हैं। जाति जनगणना से इसका प्रमाण मिल जाएगा। कहने का अर्थ है कि जाति जनगणना विपक्ष की तथाकथित माध्यम और निम्न को लुभाने की रणनीति थी। यह कोई हवा हवाई बात नहीं रही थी क्योंकि इसका इतना प्रचार किया गया था, कि एक बड़ी संख्या में लोगों का इस विचार पर विश्वास भी हो गया था। इसीलिए चुनाव में भी इस मुद्दे के आधार पर विपक्ष को वोट मिला विशेषकर 2024 के आम चुनाव में।
क्यों हो रही है?
भाजपा ने बिहार चुनाव को देखते हुए ,जहां जाति जनगणना एक बड़ा मुद्दा है, (इसीलिए बिहार में जाति सर्वे कराया गया था) विपक्ष को मुद्दा विहीन करने के लिए आगामी जनगणना में जाति जनगणना कराने को सहमति दे दी है। हालांकि केवल विपक्ष को मुद्दा विहीन करने के लिए ही नहीं बल्कि इसलिए भी भाजपा ने जाति जनगणना के लिए सहमत हुई क्योंकि भाजपा के अन्दर भी कुछ बड़े नेता विपक्ष के दर्शन से प्रभावित होकर इसके पक्ष में थे और सहयोगी गठबंधन दलों का भी इसके लिए दबाव था।

विरोध क्यों?
एक बड़े समूह को मुख्य रूप से तथाकथित उच्च जातियों को यह लगता है कि जाति जनगणना होने पर कहीं ऐसा न हो कि आरक्षण और बड़ा दिया जाय या कहीं संसाधनों के वितरण में उनकी हिस्सेदारी और कम न की जाय। दूसरा, कुछ हिंदू एकीकरण के पक्षधरों को यह भी लगता है कि कहीं जाति जनगणना से जातिवाद और न बढ़े और हिंदू और बंट जाए, जिससे उसे काटना आसान हो जाए। फिर कहीं ऐसा न हो कि हिंदू बंट कर छोटा हो जाए इसका फायदा मुस्लिम ले लें।फिर कुछ लोगों को लगता है कि इसके कारण जातियों के बीच घृणा बढ़ेगी और जातीय संघर्ष तेज हो सकता है।
जाति जनगणना के आंकड़े
वस्तुतः जाति जनगणना भले ही 1931 के बाद न हुई हो लेकिन जातियों के कुछ आंकड़े तो जारी होते ही हैं जैसे अनुसूचित जाति की गणना तो होती ही है। मंडल आयोग और काका केलकर आयोग ने अन्य पिछड़े वर्ग की गणना अपने आधार पर को थी। फिर राजनीतिक दल अपने अपने आधार पर जातियों की संख्या पता करके ही रखते हैं।
जाति जनगणना के समक्ष चुनौतियां
जाति जनगणना की घोषणा तो हो गई लेकिन जाति की परिभाषा क्या होगी यह अभी स्पष्ट नहीं। अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जातियां कोई जाति नहीं बल्कि जाति समूह है। जाति की क्यों कोई परिभाषा दी जाएगी या जो प्रचलित है उसी के आधार पर गणना की जाएगी? क्या सामान्य, पिछड़ा और दलित इसी तीन वर्गों में जातियों को रखा जाएगा या अन्य कोई समूह बनाया जाएगा? क्यों लोग अपनी जाति बताएंगे? क्या लोग अपनी जाति सही बताएंगे?
जाति जनगणना के संभावित प्रभाव
जाति जनगणना के समर्थकों का मानना है कि इससे देश में सामाजिक न्याय और समावेशी विकास होगा तथा साथ ही विकास में सबकी सहभागिता सुनिश्चित हो जाएगी। ये लोग जाति को एक इकाई मानते हैं और कहते हैं कि इससे प्रत्येक जाति को उसकी संख्या के अनुरूप लाभ प्राप्त होगा।
लेकिन प्रश्न यह है कि ये सब होगा कैसे? मंडल आयोग के अनुसार अन्य पिछड़ा वर्ग में 3743 जातियां थी, अनुसूचित जातियों की संख्या लगभग 750 है। सामान्य वर्ग में भी अनेक जातियां है, हालांकि उनकी गणना उपलब्ध नहीं है। इतना ही नहीं, जातियों की संख्या लगातार बढ़ भी रही है क्योंकि काका केलकर आयोग ने 2399 पिछड़ी जातियां मानी थी जोकि मंडल आयोग में बढ़ गई थीं। माना जा रहा है कि अब पिछड़ी जातियां 5000 से अधिक हो गई हैं। लेकिन अगर मंडल आयोग को ही आधार बनाया जाय तो देश में सामान्य वर्ग, पिछड़े और अनुसूचित जातियों को मिलकर 5000 से अधिक जातियां है। अगर इनको अलग अलग एक जाति को एक इकाई माना जाय तो संसाधनों का बंटवारा संभव ही नहीं है। इसलिए यह धारणा ही मिथ है कि प्रत्येक जातियों को उनकी संख्या के अनुसार संसाधन मिलने से सामाजिक न्याय होगा क्योंकि ये होना संभव ही नहीं है।
व्यावहारिक रूप में सभी जातियों को तीन वर्ग में बांट दिया गया है– सामान्य वर्ग, पिछड़ा वर्ग और दलित (SC)। इस वर्गीकरण से सामाजिक न्याय इसलिए नहीं प्राप्त हो सकता या जातियों की संख्या के अनुपात में संसाधन का वितरण इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि इस वर्गीकरण से एक जाति समूह के मध्य विभिन्न जातियों में संसाधनों का आनुपातिक वितरण नहीं हो पाता बल्कि प्रत्येक समूह में चाहे पिछड़े हों या दलित दोनों समूह में कुछ जातियां, जो पहले से ही संवृद्ध और सशक्त हैं, उन्हें ही संसाधनों का एक बड़ा भाग प्राप्त होता है, जबकि उनकी संख्या कम है। इसलिए जातियों के समूह के आधार पर संसाधनों के वितरण का अर्थ है, उस समूह के कुछ विशेष लोगों को संसाधन देना। यही वो लोग हैं जो जाति आधारित न्याय की बात करते हैं क्योंकि इनके जाति आधारित न्याय का अर्थ है जातियों के समूह के आधार पर न्याय और समूह का फायदा इन्हें ही मिलेगा।
जाति जनगणना का विरोध करने वाले कह रहे हैं कि जाति जनगणना से समाज में जाति आधारित दरार बढ़ेगी, जातीय घृणा बढ़ेगी और समाज में वैमनस्य पैदा होगा। जिससे अंततः देश कमजोर होगा। लेकिन ये सब तब होता जब किसी को अपनी जाति पता न होता और जाति जनगणना से उसे जाति का पता चलता। हमारे समाज में जाति सबको पता है और जाति आधारित स्पर्धा और घृणा भी विद्यमान है। साथ ही जाति आधारित तनाव और हिंसा भी देखने को मिलती है। यह सब जनगणना से न बढ़ेगा न ही कम होगा क्योंकि जाति जनगणना हो चाहे न हो अपनी जाति की एक अनुमानित संख्या सबको पता रहता है। दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जाति भले पूरे देश में पाई जाय, लेकिन जाति अपने प्रभाव के मामले में एक स्थानीय संकल्पना है। श्रीनिवासन जी ने कहा था कि क्षेत्र आधारित डॉमिनेंट जातियों होती हैं। जाति संबंधी घृणा, स्पर्धा, तनाव या हिंसा यह सब भी स्थानीय स्तर पर ही होता है। इसलिए पूरे देश में किसी जाति की कितनी संख्या है इसका ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। इसीलिए जाति का प्रभाव लोक सभा के चुनाव से ज्यादा विधान सभा के चुनाव में और विधान सभा से ज्यादा पंचायतों के चुनाव में पड़ता है। अतः इससे देश स्तर पर शायद ही ज्यादा प्रभाव हो।
मुझे लगता है कि जाति जनगणना से कुछ अन्य प्रभाव भी पड़ सकते है।
प्रथम, जाति आधारित सामाजिक और आर्थिक आंकड़े आने से जातियों के संबंध में जो पूर्वाग्रह विद्यमान है वो कम हो सकता है। जातियों(सामाजिक समूह) को जो वर्ग(आर्थिक समूह) से जोड़ कर देखा जाता है, उसमें कमी आ जाएगी।
दूसरा, जाति आंकड़ों के होने से राजनीतिक दलों को स्थानीय स्तर पर जाति आधारित प्रचार करने में मदद मिलेगी। हालांकि उनके पास अभी भी आंकड़े होते हैं, लेकिन इससे सटीकता आएगी।
तीसरा, कई जातियों, जिनका जिनकी संख्या ज्यादा होगी और राजनीतिक सहभागिता कम होगी, उस जाति के नेता का राजनीतिक महत्व बढ़ जाएगा। जाति आधारित राजनीतिक दलों की संख्या भी बढ़ सकती है।
चौथा, कुछ जातियों की संख्या कम है लेकिन राजनीतिक नेतृत्व उनके हाथ में है, तो उन्हें अपनी राजनीतिक शक्ति कम करनी पड़ सकती है।
पांचवां, प्रशासनिक स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं और कार्यक्रम चलाने के लिए सटीक डेटा उपलब्ध हो जाएगा।
छठा, आरक्षण के स्वरूप को बदलने और इसे ज्यादा समावेशी बनाने की मांग प्रारंभ हो सकती है।
निष्कर्ष
ऊपर जितने भी प्रभाव बताए गए है, वो सब संभावित है, यह भी हो सकता है कि जाति जनगणना विपक्ष का गुब्बारे जैसा मुद्दा बनता जा रहा था, इसी गुब्बारे को फोड़ने के लिए सरकार ने जाति जनगणना की मंजूरी दे दी हो। चूंकि जाति जनगणना भले न हों फिर जाति संबंधी आंकड़े लगभग सबको पता होते हैं, इसलिये अगर यह गणना भी उसी के नजदीक आई तो शायद ही कोई प्रभाव पड़े। या हो सकता है स्पष्ट संख्या आने से उपर्युक्त प्रभाव में से कुछ प्रवाह पड़े या कुछ ऐसा भी प्रभाव पड़े जो अभी नहीं सोचा जा रहा हो। खैर, जो भी हो, अब तो निकट भविष्य में हम इस परिणाम को देखेंगे।
–डॉ प्रशांत त्रिवेदी