वे जो अपनों से घिरे रहते थे… वशिष्ठ नारायण सिंह
संकल्प सवेरा। चंद्रशेखर जी जब 10 नवंबर 1990 को प्रधानमंत्री बने तो दिल्ली के एक अंग्रेजी समाचार पत्र ने लिखा कि ‘लोगों से घिरे रहने वाले चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने’। वे लोगों से क्यों घिरे रहते थे तो इसका जवाब देते हुए प्रभाष जोशी लिखते हैं कि ‘उन्हें बतकही में मजा आता था इसलिए उनके आस पास लोगों का जमघट लगा रहता था’। दरअसल चंद्रशेखर जी समाज के आदमी थे उन्हें समाज में रहना अच्छा लगता था। उनके पुत्र नीरज जी बताते है कि वे जब बलिया आते थे तो सुबह ही घर से निकल जाते थे और शायद ही कभी रात्रि से पहले घर आते थे। लोगों के दुख दर्द, खुशी में शामिल हो लोगों को अपना बना लेना उन्हें बख़ूबी आता था। और इन्हीं अपने लोगों से वे घिरे रहते थे, इन्हीं अपने लोगों से उनके यहाँ बैठकी सजती थी। यह बैठकी अधिकांशतः भोंडसी में सजती तो कभी कभार बलिया में। उनकी बैठकों में शामिल होने वाले लोग भी सतरँगी, विभिन्न पृष्ठभूमियों के थे। इस लिहाज से अपनी बैठकी में भी वह पूरे समाजवादी थे। पढ़े लिखे, अमीर,शहराती लोगों के साथ ही साथ उनकी बैठकी में गांव का अनपढ़, गरीब, किसान भी शामिल होता था। सम्मान सबका एक सा। किन्तु भाषा सबसे अलग अलग। किसी से अंग्रेजी में बात, किसी से हिंदी में बात तो किसी से भोजपुरी में बतकही। बलिया या पूर्वांचल के लोगों से वे प्रायः भोजपुरी में ही बात करते थे। लोगों का चंद्रशेखर जी से जो प्रेम था वह इस बैठकी का आधार था। ये बैठकी और अपने लोगों से उनका यह अपनापन ही था कि आज भी लोग उन्हें भरी आँखों से याद करते हैं।
चंद्रशेखर जी के एक पुराने सहयोगी, भारत यात्रा के सहयात्री बताते है कि एक बार जब वे चंद्रशेखर जी की मृत्यु के कुछ दिन पूर्व उनसे मिलने गए तो उन्होंने चंद्रशेखर जी को अपना परिचय दिया। चंद्रशेखर जी बीमार थे, बिल्कुल अशक्त फिर भी बोले- ‘अब तहके आपन परिचय देवे के जरूरत नइखे’। अंतिम समय में उनके साथ एक सेवक लगा दिया गया था, उसका नाम था- धुरंधर। उसने उन्हें सहारा दिया। अपनी शक्ति को बटोर वह बोले- ‘फलाने! पहले से दुबरा गइल बाड़अ’। हाल समाचार के बाद फिर अंत में बड़े दुख से उन्होंने कहा कि – ‘एगो अफसोस रह गइल कि तहरा खातिर कुछ कर ना पयनी’।
चंद्रशेखर जी के सहयोगी बताते हैं कि उस छन तो मैंने अपने को रोक लिया किंतु जब उनसे मिल कर मैं बाहर आया तो फफक कर रोने लगा कि ये कितने महान शख्स हैं। जब अंतिम समय में सब कोई अपने परिवार के बारे में सोचने लगता है,धन दौलत के बारे में सोचने लगता है। तब भी वे मेरे जैसे कार्यकर्ता, सहयोगी के बारे में सोच रहे हैं और कह रहे हैं कि तुम्हारे लिए मैं कुछ कर न सका,इसका अफसोस है।
उनके एक और सहयोगी अपने लोगों से उनके जुड़ाव का एक और किस्सा सुनाते हैं कि – जब प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार वह धनबाद गए तो अपनी गाड़ी से उतर कर सूर्यदेव सिंह की गाड़ी में जा कर बैठ गए। एसपीजी वालों ने उनसे कहा कि वे अपनी गाड़ी में बैठ जाएं। सुरक्षा की दृष्टि से उनका सूर्यदेव सिंह की गाड़ी में बैठना ठीक नहीं रहेगा। एसपीजी वालों की बात सुन चंद्रशेखर जी हँसे और बोले – आप लोग तो अब मेरी सुरक्षा के लिए आएं है, आप लोगों के आने के पहले इतने दिनों से यही लोग मेरी सुरक्षा करते थे। आप चिंता न करें। मैं सुरक्षित हूँ।
और चंद्रशेखर जी सूर्यदेव जी की गाड़ी में ही गए।
एक और शख़्स है, उनकी भी एक याद है। वे बताते हैं कि उनके बड़े भाई ने शादी के बाद घर का बंटवारा कर दिया। उनके पास खाने को, धर्म-कर्म चलाने लायक कुछ था नहीं तो वे किसी तरह भोंडसी आश्रम पहुँच गए। वे बताते हैं कि वहाँ वे 2-3 महिनों तक रहे और जब गेहूँ के फसल का समय हुआ तो वे वहाँ से घर चले आये। एक गलती कर दी थी उन्होंने, अपने जाने की सूचना वह चंद्रशेखर जी को बिना दिए ही आ गए। वे बताते हैं कि वर्षों बाद जब एक बार चंद्रशेखर जी चुनाव के समय उनके गाँव आये और वे चंद्रशेखर जी का पैर छूने उनकी तरफ गए तो चंद्रशेखर जी ने तुरंत उनका नाम लेते हुए कहा – ‘अरे फलाने! तू त बड़ पागल आदमी हौव हो बिना बतवले चल अईला’।
उनको विश्वास नहीं हुआ कि चंद्रशेखर जी जैसे बड़े आदमी को उनका नाम और उनका बिना बताए आ जाना याद होगा। वे कहते हैं कि जिस दिन उन्होंने चंद्रशेखर जी के मृत्यु का समाचार सुना उनको लगा कि फिर से आज उनके पिता दिवंगत हो गए।
लोगों से उन्हें उन्हें कितना लगाव था यह अपने सबसे ज्यादा उद्दात्त रूप में वहाँ दिखता है जब वे स्व. गौरी भैया के बारे में लिखते हैं। उनका अपनापन शब्दों की परिधि से बाहर आ झांकता है। वे लिखते हैं- ” गौरी भैया से बड़ी आशा थी – फक्कड़ स्वभाव का वह युवक मेरी शक्ति का सहारा था, कुछ भी कर सकने में समर्थ था। निष्ठा में निराला, साहस में सबसे अधिक निडर और कार्य करने में असीम क्षमता वाला ! अचानक एक दुर्घटना में चल बसा, एक सहारा टूट गया”।
(इस लेख में जान बूझ कर लोगों के नाम का प्रयोग नहीं किया गया है। नाम का उल्लेख यथोचित जगह और समय पर किया जाएगा। इसका कारण ये है कि चंद्रशेखर जी से संबंधित मैंने पिछले दिनों अपना एक लेख छपने को भेजा था। संपादक जी ने मुझसे पूछा कि क्या यह लेख मेरा मौलिक है क्योंकि इस लेख को उन्होंने किसी दूसरे के फेसबुक पर पढ़ा था। जिन्होंने मेरे नाम का उल्लेख नहीं किया था।मुझे मौलिकता को प्रमाणित करना पड़ा।)
$:- यह चित्र पदयात्रा (1983) के समय का है।पलवल में ‘अध्यक्ष जी’ के साथ जोशी जी, देवीलाल जी मंच पर मौजूद है। एक ट्राली पर मंच बना था। यही जी पर चंदशेखर जी को हल्का सा चक्कर आया था। उसके बाद पदयात्रा की प्रतिदिन की अवधि थोड़ा कम कर दिया गया था। जिससे थकान कम महसूस करें।
सादर नमन समाजवादी 💐💐