झड़ गयी पूछ,
रोमांत झड़े,
लेकिन पशुता झड़ी नही।
मानव रूप तो मिल गया,
लेकिन,
मानवीयता मिली नही।
हँसी मजाक में,
जिंदगी ले ली,
एक जिंदगी ऐसी भी,
जो पेट से बाहर निकली नही।
शर्म से डूब मरने की बात,
लेकिन,
शर्म तो कही है ही नही।
ऊपर वाला भी आज दुखी होगा,
यह मानव रूप देखकर,
मुखौटा है इंसान का,
बाकी,
बेहतर तो हैं जानवर।
सुशील पांडेय