पियूष चतुर्वेदी
संकल्प सवेरा। सोन नद के नाम पर अस्तित्व में आया उत्तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा जिला सोनभद्र मात्र एक जिला नहीं है। यह सरकार के कोषागार को पूर्ण करने वाला कुबेर का खजाना है। यहां की मिट्टी में प्राकृतिक सौंधापन कम नोट की महक ज्यादा है।
यह धन-बल से विपन्न लोगों के ऊपर पूंजीवादी व्यवस्था को अतिसंपन्न बनाने का घर है। उद्योग की लपट से निकली जहरीली वायु को आकाश में मुक्त करने वाला माध्यम है। जहरीली हवा से दम घुटते जिवन को समाप्त करने का साधन। यहां जनता की नहीं पैसों की बात होती है। उसके हक की नहीं उसके शोषण की चाह होती है।
यहां घरों में बल्ब कम फैक्ट्रीयों में कोयले ज़्यादा जलते हैं। कोयला के जलने से बल्ब का जलना था लेकिन बल्ब सोनभद्र में कम और बाहरी सुदूर हिस्सों में ज्यादा जलती है। शुद्ध वायु वातावरण में कम सिलेंडरों में अधिक जमा है। जहां सड़क पर चलना मुश्किल वहां चलते-चलते मृत्यु को प्राप्त हो जाना आसान है। जहां का जल उतना हीं शुद्ध है जितनी गंगा मईया। लोगों की हड्डियां उतनी हीं मजबूत रह गई हैं जितनी लोकतंत्र की दीवारें।
समाचार पत्रों में प्रदूषण, दुर्घटना और मानव जनित त्रासदी की बातें तो अवश्य होती है लेकिन उन विषयों पर अमल नहीं होता। जनता के अधिकारों की रक्षा उस सीमा तक हीं होती है जिस सीमा में चुनाव है और चुनाव का जितना है। सोनभद्र का सौभाग्य और यहां कि जनता का दुर्भाग्य हीं कहिए की सोनभद्र हर बार इस कलंक से बच निकलता है। ठीक वैसे हीं जैसे नेता अपने वादों से।
पत्थर और बालू तो है लेकिन मूल निवासियों के घर कच्चे खपरैल से बारिश का स्वागत करते हैं। संसाधन नजदीक तो है लेकिन मंहगाई की मार उसे चंद्रमा जितनी दूर महसूस कराती है। रेत तो है परंतु घर के सपने सजाते हुए नोटों पर गांधी जी को हंसते देख मुठ्ठी से फिसल जाती है। नोट पर उनकी हंसती हुई तस्वीर उनकी आम जनता के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है।
यदि वो जिंदा होते तो स्वयं इसका विरोध करते। फिर उनकी तस्वीर रोती हुई होती। आम जनता की दीनता को महसूस करती। उसी गांधी वादी चश्मे से गुप्त अंधेरे में बैठे लोगों को पावर प्लांट की जगमगाती रोशनी चिढ़ा कर चली जाती है।
मानों जैसे सुलभ शौचालय के बाहर लगे गांधी जी के चश्मे को जनता अपने गंदे कृत्य से चिढ़ाती है। दिल्ली हो या लखनऊ सबके सत्ता का रास्ता सोनभद्र से होकर गुजरता है। वादों की मार और विकास की हाहाकार सोनभद्र नित्य प्रति सहता है।
कभी नीले गमछे की चमक तो कभी लाल टोपी की दमक कभी भगवा की धनक और कभी पंजे की पकड़ में अपनी जिंदगी की भीख मांगता सोनभद्र हर बार हार जाता है। इसके हारने की निरंतरता में हीं नेताओं की जीत इतनी सुनिश्चित हो जाती है कि गमछा का रंग कोई भी हो जनता के रक्त का लाल रंग उसके समक्ष बेरंग मालूम होता है।
यहां की हवा में धूल है। सड़कों पर भ्रष्टाचार के गड्ढे हैं। पानी में पूंजीवाद का पाप और जनता की हड्डियों में भरा कोयले का राख।












