अपने गाँव-देश में…..रचनाकार….
जितेन्द्र कुमार दुबे
गाँव-देश की में देखो प्यारे….!
कुछ ऐसी बदली है तस्वीर…..
मारपीट की तो छोड़ो,
दुआ-सलाम को लेकर भी
थाने में पड़ती है तहरीर…..
आपस में है पड़ी दरारें,
खड़ी हुई हैं बड़ी दीवारें….
नाममात्र के अब शेष बचे हैं,
गाँव-देश मे….मन के अमीर…..
बहुतों ने तो…बेंच रखा है…!
अपना खुद का ज़मीर….
पंचों को दुत्कार दिया है,
पुलिस-प्रशासन को भी….!
आधे मन से स्वीकार किया है…
हो गए हैं सब के सब….!
तन-मन से….बहुत अधीर….
कोई नहीं है दिखता है…अब तो…
पहले जैसा …लकीर का फकीर…
बड़े-बुजुर्गों के अधिकार ख़तम हैं,
घर में अब तो…परिवार ख़तम है….
एक दूजे पर…विश्वास ख़तम है,
मानो या ना मानो मित्रों..अब तो..
मिल-बैठकर होने वाली…!
घर-आँगन की पूजा-अरदास ख़तम है..
रिश्तो की परिभाषा बदली,
बदली है मर्यादा भी….!
बदल गए हैं सब यम-संयम…और…
बदला है दावा और इरादा भी…
सिद्धान्त ताक पर रखकर…!
दे रहे हैं सब…अपनों को ही टक्कर..
खुशफ़हमी में जीते सब लोग,
बहुरूपिया बाँचे…सबकी तक़दीर…
बहुत अकेलापन सा है….!
अब अपने ही….गाँव-देश में….
घूम रहे हैं भूखे भेड़िए…नर वेश में…
ढोंगी ही दिखता है….!
अब तो हर दरवेश मे…
तू बड़ा कि मैं …..?
घुला जहर है इसका….
यहाँ…अब के परिवेश में…
सचमुच….बहुत कुछ बदल गया है…
अपने गाँव-देश मे….!
सचमुच….बहुत कुछ बदल गया है…
अपने गाँव-देश में….!
रचनाकार….
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त,लखनऊ