मैं दास्तान लिखूँगी
मैं भी लिखूँगाी किसी रोज़, दास्तान अपनी
मैं भी किसी रोज़, तुझपे इक ग़ज़ल लिखूँगी
लिखूँगी कोई शख्स, तो शहजादा-सा लिखूँगी
अग़र गुलों का ज़िक्र आया तो, कमल लिखूँगी
बात अग़र इश्क़ की होगी, तो बेपहना है तू,
ज़िक्र अग़र तारीख का होगा, तो अमर लिखूँगी
मैं लिखूँगी तेरी रातों की, मासूम-सी नींद,
और अपनी बेचैन करवटों की, नक़ल लिखूँगी
हाँ ज़रा मुश्किल है, तुझे अल्फाजों में बयां करना,
फिर भी यकीन मानो जान मुकम्मल तुझे ही अपनी जान लिखूँगी
ये जानती हूँ मै कि ,तुझे झूठ से नफरत है,
इसलिए जो भी लिखूँगी, सब सच लिखूँगी।













