“मुक्ति”
जला देना चिता में
मेरे साथ मेरी कविताएँ भी,
ताकि हो सके मेरी अंतिम यात्रा
मेरे शब्दों के साथ ही।
और मैं जा सकूँ महाप्रयाण पर
आश्वस्त होकर
कि मेरे बाद मेरे शब्द
नहीं करेंगे विचरण
दिशाहीन होकर।
न ही होंगे वे अपमानित
किसी कुपात्र के द्वारा अथवा
न ही उन्हें रह जाएगी लालसा
किसी परिचय, प्रशंसा
या पुरस्कार की ।
वे भी हो जाएँगे मुक्त
मेरी तरह सांसारिक बंधनों से।
किन्तु मैं जानता हूँ
कि शब्द हैं
नष्ट न होने वाली ऊर्जा ।
वे तुरंत जन्म लेंगी और
इस धरा पर किसी कोने में
पुन: कोई सह रहा होगा
सृजन की प्रसव वेदना को।
हो रही होगी प्रस्फुटित
कहीं कोई कविता।
बना रहा होगा कोई
शब्दों और भावनाओं
के चित्र
पहचान के लिए
प्रशंसा के लिए
या फिर स्वांत: सुखाय के लिए।
शब्द नहीं हो पाएँगे मुक्त
इस काल चक्र से।
शब्दों के लिए
मुझे भी जन्म लेना होगा शायद
पुन: नव सृजन के लिए।
कवि संतोष कुमार झा
(CMD कोंकण रेलवे)