धन्य रे अन्नदाता
घुटने तक की मटमैली धोती,
माथे पर एक लाल रंग का
थोड़ा बड़ी साइज का
गमछा लपेटे हुए …
पसीने से तर-बतर
हल जोत रहे किसान ने
जुआठ से नधे,
दोनों बैलों के बीच से,
हल निकालकर अलग किया….
जुआठ के दोनों ओर लगी
लोहे की सीकों को हटाकर,
छोटी-छोटी रस्सियों के सहारे
अलग-अलग बाँधा
अपने हीरा-मोती को….!
खुद मेढ़ी पर बैठ गया और
उसके प्राण-प्रिय खेत के ढेलों पर
हाथ मुँह धो….बाल्टी में…
चुन्नी से ढक कर…
लाई गई अपनी रोटियों में से
हीरा-मोती को खिलाने के बाद
खुद भी खाया रोटी और अचार
फिर भरपेट पानी पीकर
सो गया अन्नदाता,
अपने हीरा-मोती के बगल ही में…
थकान वाली पर संतोष भरी नींद
माटी के ढेलों के गद्दे और
नौ दिशाओं की हवाओं के बीच
अपनी मेहनत के नशे का
आनंद लेता हुआ….
बिजूका सा खड़ा मैं…!
देखता रहा यह दृश्य मनोहर…
और अंतर्मन खुद ही बोल गया
धन्य रे अन्नदाता,
धन्य रे तेरे आचार-विचार,
धन्य रे तुझे गढ़ने वाला कुम्हार..!
धन्य रे तुझे गढ़ने वाला कुम्हार..!
रचनाकार…
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक/क्षेत्राधिकारी नगर, जौनपुर
 
	    	 
                                












