शिक्षा का व्यवसायीकरण
।। संकल्प सवेरा ।।
मेरा विरोध किसी शिक्षण संस्थान या सरकारी शिक्षकों से नहीं है, बल्कि इस बढ़ती हुई मानसिकता से है।
“इस टापिक पर मैं अपनी बात रखना चाहती हुं, आप सबसे निवेदन है पूरा पढ़िएगा और आपकी इस पर क्या राय है, अवगत जरूर करवाएगा।
आज देश में शिक्षा केवल व्यवसाय का साधन मात्र रह गया है,
आज के दौर में शिक्षा बच्चों के चारित्रिक विकास के लिए नहीं, अपितु धनोपार्जन के लिए दी जा रही है।
शिक्षा का ये नया स्वरूप बच्चों के वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए सही नहीं है।
आवश्यकता है कि आज हम शिक्षा के सही उद्देश्य पर दृष्टि डालें। हम सबको ये लगता है कि बच्चा जितने बड़े और महंगे शिक्षण संस्थानों में जायेगा उतनी ही अच्छी शिक्षा प्राप्त करेगा।
किन्तु क्या अच्छी शिक्षा केवल महंगे और बड़े बड़े शिक्षण संस्थानों में ही सम्भव है? क्या वहां पर बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए हम आश्वस्त हैं? नहीं!
क्योंकि यदि ऐसा होता तो उसके बाद भी हमें ट्यूशन लगवाने की जरूरत नहीं प्रतीत होती।।
शिक्षा तो शिक्षकों के बेहतर प्रयास, माता पिता के सहयोग और अनुकूल वातावरण से ही सम्भव है। फिर शिक्षण संस्थान सस्ता हो या महंगा। क्या फर्क पड़ता है?
शिक्षण संस्थानों का महंगा या सस्ता होना उनके शिक्षण स्तर को नहीं दर्शाता है। इस मापदंड पर उनके शिक्षण स्तर को मापना सही नहीं है, क्यों कि ये मानसिकता आज समाज को ना जाने किस ओर ले के जा रही है। और इसी कारण आज प्राइवेट संस्थानों ने शिक्षा को पूर्णतः व्यवसायिक बना दिया है।
और अभिभावक भी खोखले दिखावे के कारण उनका पूरा सहयोग कर रहे हैं। उन्हीं का समर्थन कर रहे हैं।
हम सरकारी शिक्षकों को दोष देते हैं, सरकारी विद्यालयों पर उंगली उठाते हैं, किन्तु क्या अभिभावक होने के कारण हम इस शैक्षिक दुर्व्यवस्था के जिम्मेदार नहीं हैं।
सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाला बच्चा पिछड़ जायेगा, ये मानसिकता ही शिक्षा के इस दुर्व्यवस्था का कारण है। ऊपर से हम सब बच्चों को अंग्रेजी तोता बनाना चाहते हैं, ना जाने अपनी भाषा में ऐसी क्या बुराई नजर आती है, जो हम अपने बच्चों को अंग्रेजी बोलते ही देखना चाहते हैं, भाषा तो सभी अच्छी है, अंग्रेजी का ज्ञान होना चाहिए, ये तो समझ में आता है, पर पुरी तरह अंग्रेज बना दें ये कहां की समझदारी है, और फिर हम ये भी अपेक्षा रखते हैं, कि बच्चा बड़ा होकर देशी संस्कारो में ढले, जबकि होता इसका उल्टा है और फिर कहते हैं, जमाना बड़ा खराब है।
आज हम बच्चों को शिक्षित नहीं बल्कि ” मार्डन” बनाने में रूचि रखते हैं। भला ये किसने कहा कि जो अंग्रेजी नहीं बोलता उसे अंग्रेजी का ज्ञान नहीं है! और जो अंग्रेजी बोलता है सारा ज्ञान उसी के पास है।
वैसे बुरा तो कुछ भी नहीं है, अपना अपना चुनाव है, अपनी अपनी रुचि है,
पर आधुनिकता की इस दौड़ में बच्चे अपने मुख्य उद्देश्य से भटक जा रहें हैं।
यदि सरकारी स्कूलों के शिक्षण संस्थानों में बच्चा पढ़ता है तो हमें लगता है कि उसका सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता।
और इसी का फायदा उठाते हुए सरकारी विद्यालयों के शिक्षक भी अपना दायित्व ठीक से नहीं पुरा करते। सुधार की आवश्यकता हर वर्ग में है, चाहे वो प्राइवेट संस्थान हो, सरकारी विद्यालय हो, सरकारी शिक्षक वर्ग हो, या फिर स्वयं अभिभावक वर्ग की मानसिकता हो।
मेरा विरोध किसी शिक्षण संस्थान या सरकारी शिक्षकों से नहीं है, बल्कि इस बढ़ती हुई मानसिकता से है।
काफी लम्बा हो गया। और भी बहुत कुछ है जो लिखना चाहते हैं, पर इतना लम्बा कोई पढ़ेंगा नहीं। इसलिए यहीं रुकते हैं, और आप सभी से प्रतिक्रिया करने का निवेदन करते हैं।

साधना मिश्रा।।