राह सूनी मगर गुनगुनाते चलों:डा श्रीपाल सिंह “क्षेम”
सौन्दर्य और श्रृंगार के कवि थे डा श्रीपाल सिंह क्षेम
राजेश मौर्या
संकल्प सवेरा जौनपुर। एक पल ही जियो, फूल बनकर जियो, शूल बनकर ठहरना नहीं जिन्दगी, मै गीत रचूं अगवानी में, तथा पांव में हो थकन अश्रु भीगे नयन, राह सूनी मगर गुनगुनाते चलों जैसे सैक़ों सुप्रसिद्ध गीतों के रचनाकार साहित्य वाचस्पति डा. श्रीपाल सिंह क्षेम का जन्म दो सितंबर सन् 1922 में, जनपद मुख्यालय से लगभग दस किमी पश्चिम बशारतपुर गांव में हुआ था। इनके पिता स्व. लक्ष्मीशंकर सिंह एक किसान थे।
अपनी प्राथमिक शिक्षा एक आंचलिक विद्यालय में प्राप्त करने वाले क्षेम ने माध्यमिक शिक्षा राजकालेज से प्रा की। उन्होंने उच्च शिक्षा भारत वर्ष के ख्यातिलब्ध शिक्षण संस्थान इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रहण की। इलाहाबाद उन दिनों साहित्य एवं संस्कृति का केन्द्र था। छायावादी कविता का उस समय स्वर्णयुग चल रहा था तो नयी कविता भी प्रचलन में आ चुकी थी।
जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नन्दन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तथा महादेवी वर्मा छायावादी कविता के स्तं थे। निराला ने छंद मुक्त कविता का सूत्रपात किया। इनके परवर्ती कवियों डा. धर्मवीर भारती, विजय देव नारायण साही, डा. जगदीश गुप्ता परिमल नायक साहित्यिक संस्था से जुड़े थे ।
डा.क्षेम भी परिमल के एक महत्वपूर्ण स्तंभ थे। नयी कविता के कवि गीतों से अलग हटकर छंद मुक्त एंव अतुकांत कविताओं को साहित्य में स्थापित कर रहे थे। उन दिनों डा. शंम्भूनाथ सिंह एंव साहित्य वाचस्पति डा. श्रीपाल सिंह क्षेम अपने हृदयस्पर्शी गीतों के माध्यम से गीत को साहित्य में स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। डा. क्षेम ने छंदों के माध्यम से कृष्ण द्वैपायन जैसे कालजयी प्रबंध काव्य की रचना की।
डा. क्षेम अपनी कविताओं के माध्यम से लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना की। उन्होंने- नीदियां घरों से देखो धूपिया मुंडेरा है, जभी से जागो रे भाई तभी से सवेरा है जैसे गीतां मे किसानों की समस्याओं के साथ साथ देश की समस्याओं का कुशलतापूर्वक चित्रण किया है। धुंधला उजाला है कि काली उजियारी है। देश के सितारों बलिहारी, बलिहारी है प जैसे गीतों के माध्यम से जनप्रतिनिधियों की भूमिकाओं पर भी प्रश्न चिह्न लगाया है। उनकी रचना-नाव पतझार से तो बचा लाये हम, अब किनारों से बच जाये तो जानिए।। वर्तमान राजनीति पर एक करारा व्यंग्य है। डा. क्षेम की कविताओं में श्रंगार की अनुपम छटा देखने को मिलती है।
सौन्दर्य एंव श्रृंगार उनकी कविता का मूल तत्व है। कृष्ण द्वैपायन महाकाव्य श्रृंगार रस की धारा प्रवाहित हुयी है। छायावादी काव्य में जहां प्रकृति का मानवीकरण हुआ है वहीं डा. क्षेम ने मानव का प्रकृतिकरण करते हुए अपनी काव्य प्रतिमा का लोहा मनवाया है। उदाहरण स्वरूप निमलिखित पंक्तियां अवलोकनीय है। जकूल में है छविधार कसी, कच राशि, शिवाल सी भा रही है। कटि मूल में फूल की झालरि तो, मुख-कंज से भृंग उ़ा रही है।।
हर अंग, अनंग के घाट बने, मन तीर्थ बनी लहरा रही है। लगता युग कोक-विशोक किये, नदी ऊपर से नदी जा रही है।। नीलम तरी, ज्योति तरी, जीवन तरी, संघर्ष तरी, रूप तुम्हारा-प्रीति हमारी, राख और पाटल, रूपगंधा, गीत गंगा, अन्तर्ज्वाला, गीत जनके, मुक्त गीतिका, मुक्त कुन्तला,आदि डा0क्षेम की गीत प्रगीत काव्य कृतियॉ है। कविता के साथ-साथ समीक्षा के क्षेत्र में भी डा0क्षेम का योगदान उल्लेखनीय है। छायावाद के गौरव-चिन्हन,छायावाद की काव्य साधना कृतियां ने इनके समीक्षक स्वरूप को उजागर किया है।
डॉ श्रीपाल सिंह क्षेम की कुछ प्रेरक पंक्तिया।
राष्ट्र की रागिनी वंदन से कम नही होती।
जन्म की भूमि भी नन्दन से कम नही होती।
आओ चुटकी से उठा माथ से लगा ले हम।
देश की धूल भी चन्दन से कम नही होती।
नाव तूफान से तो बचा लाये हम।
अब किनारो से बंच जाय तो जानिये।
धार मझधार तो है अपने जाने हुए ।
कर्ण धारो से बंच जाय तो जानिये।
गीत के प्रति समर्पण।
कुछ रीते कुछ अनरीतो में।
कुछ दिन बीत गये मीतो में ।
मेरे तो उतने ही दिन थे।
जितने बीत गये गीतो में।
संकल्प सारे बिखर गये होते।
शिखर से पांव मेरे उतर गये होते।
गीत मेरे न बचाते मुझको।
तो हम कब के मर गये होते।
जीवन दर्शन से सम्बंधित पंक्तिया।
एक पल ही जियो फूल बनकर जियो।
शूल बनकर ठहरना नही जिन्दगी।
एक पल ही जियो गीत बनकर जियो।
अश्रु बनकर बिखरना नही जिन्दगी।
पांव मे हो थकन , अश्रु भींगे नयन।
राह सूनी मगर गुनगुनाते चलो
यन्त्र सा यह न मानव रहो है कभी।
यन्त्र सा फिर न मानव रहेगा कभी।
फूल बनकर कहानी कहेगा कभी।
इसलिए प्रीति के स्वर बिखेरो यहॅ।
प्यार की चांदनी मे नहाते चलो।
श्रंगार
सोयी आग दहक जायेगी।
मन की नींद बहक जायेगी।
त्ुम कस्तुरी केश न खोलो।
सारी रात महक जायेगी।
 
	    	 
                                












