गज भी करता गज से गर्जन,
अब सुरवंदन की बारी है,
फिर ” भाग्य-उदय ” होता नर का,
किरणें करुणा पर भारी हैं।
अर्थी ही थी जब अर्थ नहीं,
ये दर्द कहाँ पे दफ़नाऊँ,
करता नित प्रण मन को घेरे,
किंचित कुछ उन्नत कर जाऊँ।
साया दुःखों का साथ लिए,
माया कष्टों का हाँथ लिए,
बिलखे तन पूछे हार-हार,
मिलते काँटे क्यूँ बार-बार ?
छूना चाहा उस दृष्टि को,
जिसमे घर करती हो सृष्टि,
हो जाता तार-तार हर बार,
जैसे ओला की हो वृष्टि ।
गोधुली जैसी धूमिल सी,
क्या चाह यही क्या राह यही
घनघोर घटे तृष्णा मन में,
उन्माद यही विस्माद यही !
रोता फुट कर हँसता घुँट कर,
पीता विष प्याला राहों का,
मानो भटकूँ वन में मिट कर,
करता आलंगन आहों का।
उड़ना गर चाहूँ अम्बर में,
फिर भी “पर” साथ नहीं देता,
छुपना चाहूँ पीताम्बर में,
फिर भी “हर” साथ नहीं लेता।
आहें तो थीं, बाहें ना थी !
अभावों में दिन गुज़रा था,
आभा कहाँ मष्तक मेरे,
मैं कैदी पंछी पिंजरा था।
चिथड़े मन को समझाते नित,
तारों सा चमक उठेंगे हम,
काली रातें ढल जाएं तब,
दिनकर संग तान भरेंगे हम ।
आशाएं थीं उम्मीदें थीं,
साँसे चपलाया करती थी!
जीवन की इस मृग मारीच में,
रुहें कंप जाया करती थीं ।
लाखों ठोकर बन फिरते थे,
पर राह बिचलना न भाया,
“आनन्द” भरे इन काँटों में,
अभिमान मचलना न आया।
आसीन आज खुद के “पर” कर,
अब गगन चूमने जाता हूँ,
विश्वास बना उस मारुत सा,
नित विजयगीत गुँजाता हूँ।
“आनन्द मणि उपाध्याय” वाराणसी