“सत्ता और किसान”
एक दौर में किसानी छोड़ सब करने को तैयार था।
आज किसान किसानी करने को तैयार नहीं।
मध्य काल से हीं किसान मजदूर की शक्ल में बदलता गया।
वह मजदूर देखते-देखते इतना मजबूर हो चला है कि घर छूटा, खेत छूटे, बैल छूटे, हल छूटा, जमीन छूटा, शहर की भीड़ में दम घुटा। सांसें टूटी जमाने से साथ छूटी।
अब कुछ छूट नहीं रहा अब छीना जा रहा है।
अब किसान मजबूर नहीं क्रांतिकारी बन चला है।
उन क्रांतिकारियों को कोई आतंकवादी कह रहा है।
कोई खलिस्तानी।
उनके योद्धा होने में उनका किसान होना बहुत पिछे छूट गया है।
आधुनिक भारत में किसान एक शिकार है। जो खद्दर में छुपे शिकारियों द्वारा हर वर्ष मारा जाता है।
लोकतांत्रिक देश में चुनें हुए शिकारियों ने कभी सेवक बन तो कभी चौकीदार बन हर बार किसानों के आत्मा का, उनके विश्वास का शिकार किया है। किसी ने उनके साथी बनने की हिम्मत नहीं दिखाई। किसान एक जरिया है सत्ता के शिखर पर पहुंचने का। जहां चुनावी मौसम में उसका कर्ज़ तो माफ़ हो जाता है लेकिन बिना व्याज के उसे क़र्ज़ नहीं मिलता। किसान वह सोने का सिक्का है जिसने देश को उस स्तर तक मजबूत किया है जहां कोई भ्रष्टाचारी भी सेवा के नाम पर उन्हें गालियां बक सके।
भारतीय व्यवस्था में किसान कोई मनुष्य नहीं एक वस्तु है जिसकी क़िमत समय-समय पर बदलती रहती है और वह अपनी किस्मत को रोता रहता है। वह किस्मत जो उसके हाथों की रेखाएं नहीं खादी की ठसक तय करती है।
लेखक
पीयूष चतुर्वेदी
कवि