गज़ल बरबादिया नसीब में लिखवा के आ गए
खुद ही घर अपना मौत को दिखवा के आ गए
ज़िंदा हूं जल के आग में गम कि है इंतिहा
फिर भी हम अपने ज़ख्म को सिलवा के आ गए
ग़म की हयात में अब ग़म की बिसात क्या
हम ग़म को ज़हर ग़म का पिलवा के आ गए
उसने किया था तन्हा हैरत में डाल कर
हम उसको उसके इश्क से मिलवा के आ गए
हम को मिली जो खुशियां ग़म की तलाश में
उनको भी उसकी झोली में डलवा के आ गए
मरहम जो लगके अब तक सूखा था अभी
उस ज़ख्म को छुरी से छिलवा के आ गए
खुशनुमा हयात (एडवोकेट/ कवियत्री)
बुलंदशहर उत्तर प्रदेश भारत