कह कर भी बयान नहीं कर पाती थी
अब बिना कुछ कहे बहुत कुछ कहने लगी
शब्दों से नाता टूटता सा चला गया
जब से खामोशियों में ढलने, समझने लगी
कहने पर हड़बड़ी में गड़बड़ी होती थी
अब बिना आवाज बहुत कुछ कहने लगी
जब से आँखे पढ़ना शुरू किया है तब से
मुझे आँखे खुली किताब सी लगने लगी
दो चार बात बोलने पर जो जुबां लड़खड़ाती थी
अब इशारों-इशारों में बेहिसाब बात करने लगी
पहले लफ़्ज भी समझ नहीं आते थे
अब बिना कहे भी बातें समझने कहने लगी
लेखिका- डॉ सरिता चंद्रा
बालको नगर कोरबा (छ.ग.)