राजीव पाठक
जौनपुर।सपा के “पारस” व मिनी मुलायम का खिताब हासिल किए जौनपुर की राजनीती के विभिन्न आयामो में फिट होने वाले धुरंधर पूर्व सांसद व विधायक पारसनाथ यादव के असमय मृत्यु के बाद खाली हुई मल्हनी विधानसभा की सीट के लिए राजनैतिक गलियारों से लेकर मल्हनी की गांव की पगडंडियों तक कयासों का दौर शुरू हो गया है।उपचुनाव की कोई सूचना भले ही न हुई हो लेकिन लॉक डाउन में लगातार क्वारन्टिन रहने वाले तमाम चुनावी नेता खुद को भावी विधायक मानकर क्षेत्र में हाल और चाल दोनों ही पूछने निकल पड़े हैं।
मल्हनी विधानसभा का इतिहास भले ही आठ साल पुराना हो लेकिन स्व0पारसनाथ यादव का राजनैतिक कार्यकाल इतना लंबा है जिसमे वर्तमान के कई सुरमाओ की उम्र भी उतनी नही होगी।छह बार विधायक, दो बार सांसद और तीन बार यूपी में कैबिनेट मंत्री रहे स्व0पारसनाथ यादव ने 2012 में नए परिसीमन के बाद रारी विधानसभा से बनी मल्हनी विधानसभा से चुनाव जीता था,वही 2017 के चुनाव में भाजपा की प्रचण्ड लहर के बीच भी पारसनाथ ने अपनी सीट पर जमे रहकर यह साबित कर दिया था कि उन्हें यूँ ही मिनी मुलायम नही कहते।हालांकि उनके बाद खाली हुई मल्हनी विधानसभा सीट पर उपचुनाव की तैयारियों को लेकर तमाम राजनैतिक धुरंधर व पार्टियां मतदाताओं को रिझाने में जुट गई हैं।आकड़ो पर गौर करें तो 2012 नए परिसीमन पर पहली बार मल्हनी विधानसभा सीट के लिये हुए चुनाव में पारसनाथ ने पूर्व सांसद धनंजय सिंह की पत्नी जागृति सिंह को लगभग तीस हजार वोटों से हराया था ।तो वही 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की प्रचण्ड लहर के साथ सतीश सिंह को पारस के किले को भेदने के लिये उतारती है,तो वही पूर्व सांसद धनंजय सिंह ने निषाद पार्टी के झंडे के साथ पारस को चुनौती दी।सपा के पारस नाथ यादव के कद का ही था कि भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपने प्रत्याशी सतीश सिंह के लिए चुनावी रैली को संबोधित करने के लिये आना पड़ा।तो वही यादव की विरोधी मानी जाने वाली पार्टी बसपा ने भी “यादव प्रत्याशी” विवेक यादव को पारसनाथ के सामने एक बड़ी चुनौती दी थी।लेकिन इस चुनाव में फिर खुद को साबित करते हुए रिकॉर्ड 69351 वोट के साथ पारसनाथ यादव ने सपा के किले को सुरक्षित कर लिया।यूँ तो उपचुनाव छ माह के भीतर कराया जाना होता है किंतु अन्य विधानसभा सीट पर उपचुनाव की तिथि समाप्त होने के चलते मल्हनी में उपचुनाव को लेकर आयोग निश्चित ही जल्द ही निर्णय ले सकता है।ऐसे में तर्क वितर्क,आरोप प्रत्यारोप के बीच कौन किस झंडे के नीचे आएगा,कौन रूठेंगा कौन मानेगा यह तो भविष्य के गर्त में है,लेकिन पारस के किले पर जो भी उत्तराधिकारी विजयी होकर जनता का प्रतिनिधित्व करेगा वह निश्चित ही एक इतिहास लिखेगा।
धनंजय सिंह पर टिकी सबकी निगाहें

पारस के चिर प्रतिद्वंद्वी धनंजय सिंह भले ही इस समय जेल में हो लेकिन लॉक डाउन में भी लगातार उनके द्वारा सहायता कार्यक्रम जारी रहे हैं।2010 के उपचुनाव में मल्हनी की पूर्ववर्ती विधानसभा रारी से अपनी विधायक सीट पर अपने पिता राजदेव सिंह को जीत दिलाकर खुद को साबित करने वाले धनंजय सिंह 2012 से ही ‘अपने व अपनों’ की जीत के लिये तरस रहे हैं।ऐसे में इस कद्दावर नेता का उपचुनाव में महत्व अलग ही मायने रखता है।देखना दिलचस्प है कि पिछले चुनाव में निषाद पार्टी के झंडे से चुनाव लड़ने वाले धनंजय सिंह की उक्त पार्टी वर्तमान में भाजपा की सहयोगी पार्टी है तो वही धनंजय लगातार बीजेपी में अपनी पैठ बनाने और टिकट पाने को आतुर हैं ऐसे में इस चुनाव में वे पार्टी के साथ आएंगे या निर्दल ही ताल ठोकेंगे।
पारस के उत्तराधिकरी होंगे युवा नेता लकी यादव

लेकिन वर्तमान समीकरणों को देखें तो सपा का गढ़ मानी जाने वाली मल्हनी की इस सीट के लिए सपा में भी मंथन शुरू हो गया है।पारसनाथ यादव के पुत्र लकी यादव उनकी राजनैतिक विरासत को सम्हलने को जहां एक तरफ आतुर है तो वही पिछले चुनाव में पारसनाथ के तमाम जोर लगाने के बाद भी पार्टी ने लकी को टिकट नही दिया था,जबकि एक लंबे समय तक बसपा का झंडा थामने वाले दो बार कैबिनेट मंत्री रह चुके जगदीश नारायण राय वर्तमान में सपा के मजबूत स्तंभ के रूप में खड़े हैं, ऐसे में सपा को जगदीश नारयण राय के अनुभव को भुनाने में कोई गुरेज नही होगी।वही सपा के पूर्व विधायक व जिलाध्यक्ष लाल बहादुर यादव भी टिकट मांगने वालों की सूची में शामिल हैं तो वही रारी से पूर्व प्रत्याशी व पूर्व विधायक बाबा दुबे भी पारसनाथ के उत्तराधिकारी के रूप में खुद को साबित करना चाहेंगे।
टिकट के लिए मचेगा बीजेपी में घमासान।

उपचुनाव के परिणामों के इतिहास के अनुसार बीजेपी के पूर्व प्रत्याशी सतीश सिंह फिर से क्षेत्र में अपनी गतिविधियों को शुरू कर रहे हैं तो वहीं बीजेपी के कई धुरंधर पार्टी मुख्यालय का चक्कर लगाना शुरू कर दिए हैं।चर्चाओं के अनुसार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रनेता व भाजपा नेता मनोज सिंह भी क्षेत्र में अपनी गतिविधियों को शुरू कर दिए है तो भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष सुशील उपाध्याय भी टिकट के दावेदारों में शामिल हैं।वही पार्टी सूत्रों की माने तो बीजेपी किसी पिछड़ी जाति पर दांव खेल सकती है।
किसका दामन थामेंगे अशोक।

वही मुम्बई के व्यवसायी व बसपा के पूर्व घोषित प्रत्याशी अशोक सिंह जहां टिकट ना मिलने के कारण बसपा छोड़कर कांग्रेस में चले गए थे किन्तु वहाँ भी निराश होकर निर्दल ही 2019 के चुनाव में ताल ठोकते दिखाई दिए थे।इसमे कोई अतिश्योक्ति नही की पूरे लॉक डाउन में व्यक्तिगत स्तर पर सहायता कर्यक्रम जारी रखकर अशोक सिंह ने अपनी छवि को जनता की नजर में उठाने का भरसक प्रयास किया है।देखना दिलचस्प होगा कि वे किसी पार्टी के साथ इस उपचुनाव में कूदेंगे या पुराने अनुभवों के अनुसार खुद का झंडा ही बुलन्द रखेंगे।
बसपा भी लड़ सकती है चुनाव।
राजनैतिक सूत्रों की माने तो उपचुनाव में अभी तक लगातार दूर रहने वाली बसपा भी इस उपचुनाव से अपना भाग्य आजमाना चाहती है।
कांग्रेस में संशय की स्थिति।
बात करें देश की दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस की तो प्रियंका गांधी के तमाम प्रयासों के बाद भी उत्तरप्रदेश के साथ ही जनपद में भी पार्टी क्रियाशील नही हो पा रही है।जिला कांग्रेस के कुछ कार्यक्रमो को छोड़कर पार्टी के कोई नेता अपना जनाधार बनाने को नही दिखते,ऐसे में क्या पार्टी इस उपचुनाव में उतरेगी यह भी संशय है।